कविता जब प्रेम में होने की हो तो अलग होती है, प्रेम से अलग होने में अलग होती है और समर्पण और निश्चलता की कविता अलग होती है। क्या हो जब एक ही कवि अलग अलग प्रेम के क्रम में कविता लिखे: प्रेम में होने की कविता, प्रेम से अलगाव की कविता, प्रेम के लिए कविता ? कभी सोचा है क्या एक कवि क्या क्या महसूस करता होगा क्या क्या लिखता होगा और कितना दुखों को छुपाता होगा जिसे वो अपने निजी संपत्ति का हिस्सा मानते हुए किसी से बांटना नहीं चाहता होगा।
ऐसे ही एक कवि है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जिनके जन्म के एक दिन बाद मेरा जन्म दिवस होता है और जो मेरे लिए गौरव और दुख दोनो का कारण है। गौरव इसलिए की ऐसे कवि के साथ जन्म माह बांट रहा हूं जिनकी कविताओं को बार बार पढ़ने के बाद आनंद का ग्रास होता हूं वहीं मेरी कविताएं रोदन राग के सिवा कुछ नहीं हो पाती है इसका दुख है।
आज सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की तीनों कविताओं का जिक्र करना चाहता हूं जो मेरे काफी करीब है और जिन्हे पढ़कर मैने प्रेम के तीन पड़ावों: प्रेम में होना , प्रेम में न होना और प्रेम के प्रति समर्पण रखना को सिखा है और सीखने की जानने की कोशिश करता रहा हूं।
पहली कविता है :तुम्हारे साथ रहकर / सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
"तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो lहर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।"
ये कविता प्रेम के पहले पड़ाव को दर्शाती है जब हम सब प्रेम में जीते है प्रेम में होते है और आम तौर पर प्रेम में रहने पर आप आशा से पूर्ण रहते है और आशा के लिए प्रेम करते है और प्रेम चाहते है। प्रेम के इस पड़ाव में आप और हम सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते है हर परेशानी आसान लगती है और हम प्रेमी प्रेमिका के साथ परस्पर सहयोग द्वारा अपनी समस्या पर विजय प्राप्त करके प्रेम करते है और प्रेम में रहते है।
दूसरी कविता: तुमसे अलग होकर/ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
"तुमसे अलग होकर लगता है
अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,
और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में
गिरता जा रहा हूँ।
अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,
न अर्थमय, न अर्थहीन;
गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।
तुमसे अलग होकर
हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध
हर चीज़ में कुछ पाने की
अभिलाषा जाती रही
सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है
हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।
तुमसे अलग होकर
घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है,
नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं
पैर उलझ जाते हैं,
आकाश उलट गया है
चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,
मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर
उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।
तुमसे अलग होकर लगता है
सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,
हर चीज़ टकराती है
और बिना चोट किये चली जाती है।
तुमसे अलग होकर लगता है
मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ
कि हर चीज़ का आकार
और रंग खो गया है,
हर चीज़ के लिए
मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,
धब्बों के एक दायरे में
एक धब्बे-सा हूँ,
निरंतर हूँ
और रहूँगा
प्रतीक्षा के लिए
मृत्यु भी नहीं है।"
इस दूसरी कविता ने प्रेम के दूसरे पड़ाव में हम और आप कैसे टूट जाते है प्रेमी प्रेमिका के जाने से और कैसे नकारात्मक ऊर्जा से भर जाते है और अपने आप में सिर्फ कमियां देखते है, पाते है अपने अंदर के असफल व्यक्ति को प्रेमी प्रेमिका खो चुका है और अब प्रेम की असफलता का दोष स्वयं पर आधारित करके दुखी है। ह,प्रेम के जाने से वो अपने अस्तित्व को नकारने लगते है और मृत्य के लिए इंतजार करते है जो उनके लिए नही है।
तीसरी कविता: तुम्हारे लिए / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
"काँच की बन्द खिड़कियों के पीछे
तुम बैठी हो घुटनों में मुँह छिपाए।
क्या हुआ यदि हमारे-तुम्हारे बीच
एक भी शब्द नहीं।
मुझे जो कहना है कह जाऊँगा
यहाँ इसी तरह अदेखा खड़ा हुआ,
मेरा होना मात्र एक गन्ध की तरह
तुम्हारे भीतर-बाहर भर जाएगा।
क्योंकि तुम जब घुटनों से सिर उठाओगी
तब बाहर मेरी आकृति नहीं
यह धुंधलाती शाम
और आँच पर जगी एक हल्की-सी भाप
देख सकोगी
जिसे इस अंधेरे में
तुम्हारे लिए पिघलकर
मैं छोड़ गया होऊँगा।"
इस कविता में प्रेम का वो पड़ाव है जहां सुख और दुख कम है । ना प्रेमी प्रेमिका को खोने का दुख है ना उनके साथ होने का सुख है जो इस प्रक्रिया में है वो है समर्पण प्रेमी प्रेमिका के लिए ।
इसी कविता की पंक्तियां है:
"क्या हुआ यदि हमारे-तुम्हारे बीच
एक भी शब्द नहीं।
मुझे जो कहना है कह जाऊँगा
यहाँ इसी तरह अदेखा खड़ा हुआ"
जो मुझे इन तीनों कविताओं में शायद सबसे ज्यादा पसंद और जिसे मैं अपने करीब सबसे ज्यादा पाता हूं।
अब अंतिम बात जरूरी नहीं आज प्रेम के जिस पड़ाव में आप है हमेशा उसी में रहे , आज आप प्रेमी प्रेमिका से अलगाव में हो , क्या पता कल उनके साथ हो, या आज जो साथ है क्या पता कल वो अलग हो या फिर जो प्रेम के समर्पण में हो क्या पता कल वो प्रेम से विरक्ति करते हुए कल मोहसिन नक़वी के शब्द कहे "अहद ए वफ़ा एक शगल है बेकार लोगो का"।
- अभिषेक त्रिपाठी
आषाढ़, १, २०२१
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